जनजातीय विद्रोह :-
झारखण्ड में अंग्रेजो का पहला प्रवेश वर्ष 1760 में हुआ जिसके बाद से ही अंग्रेज झारखण्ड में अपने पैर पसारने लगे। वर्ष 1767 में अंग्रेजो ने फर्गुसन के नेतृत्व में सिंघभूम पर आक्रमण कर दिया और झाड़ग्राम पर अधिकार कर लिया। कुछ राजाओं ने भयभीत होकर आत्मसमर्पण कर दिया जैसे - रामगढ़ के राजा मुकुंद सिंह ,जामवनी के राजा और सिलदा के राजा प्रमुख थे। इसके बाद फर्गुसन ने घाटशिला पर आक्रमण कर उसपर भी अधिकार कर लिया इस तरह अंग्रेजों का झारखण्ड की धरती पर प्रवेश हो गया।
अंग्रेजों ने प्रशासकीय स्तर पर झारखण्ड के आदिवासी लोगो के हितों और अधिकारों का हनन तथा दमन करना शुरू कर दिया। इसके साथ ही इन आदिवासी लोगो को अपनी सभ्यता और संस्कृति पर भी खतरा मँडराता दिखाई दे रहा था। यह सभी कारणों ने जनजातीय विद्रोह को जन्म दिया और यहाँ के स्थनीय लोग अंग्रेजों के नीतियों के विरुद्ध आंदोलन छेड़ने के लिए विवश हो गए।
जनजातीय विद्रोह के कारणों का विस्तृत वर्णन प्रस्तुत है -
राजनीतिक कारण -
प्राचीन काल से ही झारखण्ड के आदिवासी अपने प्रदेशों में आंतरिक स्वायत्तता की स्थिति में रह रहे थे। लेकिन अंग्रेजों ने अपना पूर्ण अधिकार स्थापित करने का प्रयास किया।जिसके कारण झारखण्ड के आदिवासियों में असंतोष की भावना उत्पन्न हो गयी। अंग्रेजों ने आदिवासियों के प्रदेश में अधिकार कर लिया और अंग्रेज इस क्षेत्र में ब्रिटिश शासन की स्थापना करने के लिए अनेक अधिकारियो को भेजने लगे। उनके अधीन पुलिस और अन्य अधिकारी नियुक्त किये गए जो की गैर झारखंडी थे। इन अधिकारियो ने भोले भाले आदिवासियों पर शासन तथा निर्दयतापूर्वक इनका शोषण किया।
आर्थिक कारण -
झारखण्ड की जनजाति शुरू से ही जंगलो पर निर्भर रही है और वह अपनी आपूर्ति यही से करती थी परन्तु अंग्रेजों ने किसानों की जमीनो को जमीदारो को सौप दिया और जो किसान पहले अपनी भूमि के स्वामी हुआ करते थे वे अब उस भूमि के मजदूर बन गए। अंग्रेजों ने अपना राजस्व बढ़ाने के लिए कार्नवालिस के काल में स्थायी बंदोबस्त को लागू कर दिया। जिसके अनुसार जमीदारो को भूमि का स्वामी मानकर सभी अधिकार जमीदारो को दे दिया गया पहले वे केवल लगान वसूल करते थे लेकिन अब वे जमीन को बेच भी सकते थे। जमींदार वसूल किये गए कुल लगान का 10 /11 भाग अंग्रेज को देते और 1 /11 भाग अपने पास रखते थे। समय पर लगान न मिलने पर जमींदार किसानो की जमीनों को बेच दिया करते थे जिससे किसान भूमि हीन होने लगे। इन्ही सभी कारणों ने किसान आदिवासियों में असंतोष की भावना उत्पन कर की और उन्हें विद्रोह करने पर विवश कर दिया।
धार्मिक कारण -
झारखण्ड में अंग्रेजो के प्रवेश के साथ ही ईसाई धर्म का प्रचार प्रसार भी शुरू हो गया। ईसाई धर्म के प्रचारक आदिवासियों को अनेक प्रकार के लाभ दिखा कर या जनजातियों की संस्कृति पर प्रहार करके उन्हें अपना धर्म बदलने के लिए विवश करने लगे जिसके परिणाम स्वरूप आदिवासियो को अपना धर्म संकट में लगने लगा और उनमे अंग्रेजो के विरुद्ध विद्रोह की भावना जागने लगी।
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झारखण्ड के आदिवासियों द्वारा जो आंदोलन किया गया उनका विवरण इस प्रकार है -
1. ढाल विद्रोह -
- यह झारखण्ड राज्य का पहला जनजाति विद्रोह है जिसकी शुरुआत वर्ष 1767 में हुआ।
- ढाल विद्रोह का नेतृत्व ढालभूम के राजा जगन्नाथ ढाल ने किया।
- ढाल विद्रोह का प्रमुख केंद्र सिंघभूम का क्षेत्र था।
- अंग्रेजो ने जगन्नाथ ढाल को हटाकर नीमू ढाल को राजा बना दिया
- क्योंकि जगन्नाथ ढाल एक स्वाभिमानी राजा था
- जगन्नाथ ढाल ने अंग्रेजो को लगान देने से साफ मना कर किया था।
- यह विद्रोह करीब 10 वर्षो तक चला और 1777 में अंग्रेजो द्वारा जगन्नाथ ढाल को वापस से ढालभूम का राजा स्वीकार करने के बाद यह शांत हो गया।
- इस विद्रोह का दमन रुख ,मॉर्गन ने किया था।
2. चुआर विद्रोह -
- अंग्रेज भूमिजो को चुआर कहते थेl
- इस कारण इस विद्रोह को चुआर विद्रोह का नाम दिया गया।
- जमीदारो के यहाँ सिपाही का काम करने वालो को पाइक कहा जाता था और उन्हें वेतन के रूप में जमीन दी जाती थी जिन्हे पाइकन जमीन कहा जाता था।
- अंग्रेज शासको ने चुआरो से उनकी पुस्तैनी जमीन को छीन लिया जिसके कारण चुआरो में अंग्रेज शासन के विरुद्ध आक्रोश उत्पन हो गया।
- चुआरो ने रघुनाथ महतो ,श्याम गंजम ,सुबल सिंह और जगन्नाथ पातर के नेतृत्व में अंग्रेज शासन के विरुद्ध आंदोलन छेड़ दिया।
- यह विद्रोह वर्ष 1769 से शुरू होकर वर्ष 1805 तक चला और अंग्रेज अफसर नन ,फोरबेस ने इसका दमन कर दिया।
3. चेरो विद्रोह -
- यह विद्रोह चेरो जनजाति द्वारा किया गया इस कारण इस विद्रोह को चेरो विद्रोह का नाम दिया गया।
- चेरो विद्रोह की शुरुआत वर्ष 1770 में हुई और इसका नेतृत्व पलामू के चेरो शासक चित्रजीत राय ने किया।
- इस विद्रोह में गोपाल राय ने अंग्रेजो का साथ दिया ताकि वह अंग्रेजो की मदद से पलामू का राजा बन सके।
- पलामू के शासक चित्रजीत राय और उनके दीवान जयनाथ सिंह ने गोपाल राय का विरोध किया परन्तु अंग्रेज कैप्टेन जैकब कैमक ने चेरो विद्रोहियों का दमन कर दिया।
- अंग्रेजो द्वारा पलामू पर अधिकार कर लिया गया और अंग्रेजो ने वर्ष 1771 को गोपाल राय को पलामू का राजा घोषित कर दिया।
4. भोगता विद्रोह -
- चेरो विद्रोह में असफलता के बाद पलामू के शासक चित्रजीत राय के दीवान जयनाथ सिंह जो की एक भोगता सरदार थे उन्होंने भोगता जनजातियों के साथ मिलकर अंग्रेजो और गोपाल राय के विरुद्ध आंदोलन छेड़ दिया।
- जयनाथ सिंह ने अंग्रेजो को पलामू का किला सौपने से इनकार कर दिया परन्तु अंग्रेज किसी भी कीमत पर पलामू के किले पर अधिकार करना चाहते थे
- अंग्रेजो ने लड़ाई छेड़ दी जिसके बाद भोगता और चेरो ने मिलकर अंग्रेजो का मुकाबला किया लेकिन दुर्भाग्य वश पलामू के शासक चित्रजीत राय के दीवान जयनाथ सिंह की पराजय हो गयी और अंग्रेजो ने पलामू के किले पर अधिकार कर लिया।
- भोगता विद्रोह को दमन अंग्रेज कैप्टेन जैकब कैमक ने किया।
- भोगता विद्रोह कुछ महीने तक ही चला जो वर्ष 1771 में शुरू होकर वर्ष 1771 में ही समाप्त हो गया।
- लड़ाई हरने के बाद जयनाथ सिंह पलामू छोड़ कर सरगुजा चला गया।
5. घटवाल विद्रोह -
पहाड़ो के रास्ते महसूल वसूलने वालो को घटवाल कहा जाता है।
- इस विद्रोह का क्षेत्र हज़ारीबाग और रामगढ़ तक फैला था।
- इस विद्रोह का मुख्य कारण अंग्रेजो द्वारा रामगढ के राजा मुकुंद सिंह से दुर्व्यवहार के विरोध में था।
- रामगढ के राजा मुकुंद सिंह के राज्य पर जब उसके एक सम्बन्धी तेज सिंह ने अपना अधिकार जताया तब अंग्रेजो ने तेज सिंह का साथ दिया और मुकुंद सिंह को सत्ता से हटा कर बंदी बनाने की कोशिश की परन्तु बंदी बनने के डर से मुकुंद सिंह वहा से भाग गया।
- चूँकि घटवाल जनजाति रामगढ के राजा मुकुंद सिंह के काफी वफादार थे उन्होंने इस अपमान का बदला लेने के लिए मुकुंद सिंह के नेतृत्व में विद्रोह छेड़ दिया।
- इस विद्रोह की मुख्य बात यह थी की इस विद्रोह से युद्ध जैसी स्थिति नहीं बनी अंग्रेजो ने कैप्टेन जैकब और कैप्टेन कैमक की मदद से इस विद्रोह का शांति पूर्वक दमन कर दिया और यह विद्रोह वर्ष 1772 में शुरू होकर वर्ष 1773 में ही समाप्त हो गया।
6. पहाड़िया / पड़हिया विद्रोह -
- पहाड़िया आदिवासी मुख्य रूप से पहाड़ो में निवास किया करती थी परन्तु वर्ष 1770 के आस- पास उनके क्षेत्र में भारी अकाल की स्थिति आ गयी और उन्हें जंगल छोड़ कर मैदानी इलाके में आना पड़ा और इसके साथ ही मैदानी इलाको में लूट पाट शुरू हो गया।
- इसी समय क्लिवलैंड यहाँ अँग्रेजी कंपनी द्वारा नियुक्त किये गए थे।
- अंग्रेज अधिकारी क्लिवलैंड ने कुछ पहाड़िया सरदारों को अपने समर्थन में ले लिया और उन्हें हथियार चलने का प्रशिक्षण देने लगे परन्तु पहाड़िया आदिवासियों ने क्लिवलैंड के इस प्रयास को कंपनी की साजिश समझा और पहाड़िया जनजातियों ने जगन्नाथ देव के नेतृत्व में आंदोलन छेड़ किया।
- इसी समय कंपनी शासन का विरोध करते हुए सुल्तानाबाद में महेशपुर राज्य की रानी सर्वेश्वरी ने विद्रोह कर दिया।
- यह विद्रोह "दामिन ए कोह "के विरोध में था।
- अंग्रेजो ने सभी पहाड़िया आदिवासियों की जमीनों को सरकारी संपत्ति घोषित करना शुरू कर दिया था।
- अंग्रेजो ने रानी सर्वेश्वरी को बंदी बना लिया और भागलपुर जेल में बंद कर दिया जिसके बाद वर्ष 1807 में भागलपुर जेल में रानी सर्वेश्वरी की मृत्यु हो गयी।
- इस तरह क्लिवलैंड वर्ष 1782 में पहाड़िया विद्रोह का दमन कर दिया।
7. तिलका विद्रोह -
- 18 वी सदी के प्रारम्भ में राजमहल क्षेत्र में संथालो का प्रवेश हुआ।
- संथाल जनजाति गुरिल्ला युद्ध करने में कुशल थे।
- अंग्रेज अधिकारी क्लिवलैंड ने 47 पहाड़िया सरदारों को अपने समर्थन में ले लिया और उन्हें हथियार चलाने का प्रशिक्षण देने लगा तथा उन्हें कई सुविधाएं भी मिलने लगी।
- इन सभी पहाड़िया सरदारों का प्रमुख जौराह नामक व्यक्ति था।
- इन सबके बाद तिलका मांझी (उपनाम -जबरा पहाड़िया ) जो एक संथाल आदिवासी था उसने क्लिवलैंड की नीति को बाटने वाला बताया और अंग्रेज अधिकारी क्लिवलैंड से सभी पहाड़िया आदिवासी के लिए एक सामान अधिकार की मांग की।
- अधिकार ना मिलने के बाद संथाल समुदाय ने तिलका मांझी के नेतृत्व में वर्ष 1784 में वनचरीजोर (भागलपुर) से विद्रोह की शुरुआत कर दी और तिलका मांझी ने क्लिवलैंड को तीर से मार गिराया। क्लिवलैंड की मृत्यु के बाद अंग्रेजी शासन ने आयरकूट को भेजा जिसके नेतृत्व में अंग्रेजो ने तिलका मांझी को गिरफ्तार कर लिया और वर्ष 1785 में तिलका मांझी को भागलपुर में फांसी दे दी गयी।
- इसी के साथ ही तिलका विद्रोह का दमन हो गया।
- फांसी की सजा पाने वाले तिलका मांझी झारखण्ड के पहले व्यक्ति थे।
- जिस स्थान पर तिलका मांझी को फांसी दी गयी उस स्थान को आज तिलका मांझी चौक की नाम से जाना जाता है।
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- कोल विद्रोह का झारखण्ड में विशेष स्थान है क्योंकि यह झारखण्ड का पहला सुसंगठित और व्यापक विद्रोह है।
- इस विद्रोह को इतिहासकार राष्ट्रीय विद्रोह भी मानते है।
- यह व्यापक विद्रोह पलामू ,सिंघभूम और मानभूम के आदिवासियों द्वारा संयुक्त रूप से मिलकर चलाया गया था।
- केवल हज़ारीबाग ऐसा क्षेत्र था जो इस विद्रोह से अछूता था।
- कोल विद्रोह मुख्य रूप से मुंडा जनजातियों का विद्रोह था जिसमे हो जनजातियों ने मुख्य भूमिका निभाई।
कोल विद्रोह के कई कारण थे परन्तु मुख्य कारण निम्न लिखित है -
जमीन संबंधी कारण -
अंग्रेजी शासन द्वारा मनमाने भू राजस्व वसूले जाने के कारण यहाँ के किसानो की स्थिति दिन प्रतिदिन ख़राब होती गयी और किसान भू राजस्व ना दे पाने की स्थिति में उन्हें अपना जमीन बेचना पड़ता था इस तरह वे अपनी जमीनों से वंचित होने लगे।
जमीदारो का अत्याचार -
अग्रेजो ने भू राजस्व वसूलने का कार्य जमीदारो को दे दिया जिसके बाद जमीदारो ने मनमाने तरीको से भू राजस्व वसूलने लगे। यदि कोई किसान भू राजस्व देने में सक्षम नहीं होता तो उसकी जमीन को बेच कर जमींदार उनसे भू राजस्व वसूल किया करते थे। इस तरह किसान आदिवासी की स्थिति दिन प्रतिदिन ख़राब होने लगी।
कोल विद्रोह का आरम्भ और दमन
अंग्रेजो और जमीदारो के अत्याचार से तंग आकर मुंडाओं ने जतरा भगत और सिंगराई मानकी के नेतृत्व में विद्रोह आरम्भ कर दिया इस विद्रोह में मुंडा जनजाति का साथ हो ,चेरो और खरवार जनजाति ने दिया। यह विद्रोह वर्ष 1831 में प्रारम्भ हुआ और वर्ष 1832 में अंग्रेज अधिकारी विलकिंसन के द्वारा इसका दमन कर दिया गया।
9. भूमिज विद्रोह -
- बड़ाभूम के राजा बेलाक नारायण के दो बेटे थे रघुनाथ सिंह और लक्षमण सिंह।
- इन दोनों के मध्य सत्ता के लिए काफी संघर्ष हुआ और अंत में रघुनाथ सिंह को राजा बनाया जाता है।
- रघुनाथ सिंह के भी दो बेटे थे गंगा गोविन्द और माधव सिंह।
- इन दोनों के बीच भी सत्ता के लिए संघर्ष हुआ और अंत में लक्षमण सिंह के बेटे गंगा नारायण के समर्थन से गंगा गोविन्द राजा बन जाता है।
- भूमिज विद्रोह के शुरुआत वर्ष 1832 में गंगा नारायण के हाथो मांधव सिंह के मृत्यु के साथ ही शुरू हो गया ।
- इस कारण इस विद्रोह को गंगा नारायण का हंगामा भी कहा जाता है।
- इस विद्रोह में गंगा नारायण ने लड़ाका कोल की मदद लेने की कोशिश की मगर कोलो ने मदद के बदले यह शर्त रखी के पहले वे कोलो के दुश्मन खरसावा के ठाकुर चेतन सिंह को पराजित करे परन्तु दुर्भाग्य से वर्ष 1833 में ठाकुर चेतन सिंह के सैनिक के हाथो गंगा नारायण की मृत्यु हो गयी और यह विद्रोह यही समाप्त हो गया।
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10. संथाल विद्रोह -
- वर्ष 1855 में साहेबगंज के बढ़ैत क्षेत्र से सिधू ,कान्हू ,चांद और भैरव के नेतृत्व में संथाल विद्रोह के शुरुआत हुई।
- हज़ारीबाग क्षेत्र में इस विद्रोह का नेतृत्व अर्जुन मांझी ने किया।
- इस विद्रोह की मुख्य बात यह थी की इस विद्रोह में महिलाओ ने बढ़- चढ़ कर भाग लिया जिसमे फूलो और झानो नामक महिला प्रमुख है।
- इन सभी विशेषता के कारण कार्ल मार्क्स ने इसे भारत के पहली जनक्रांति कहा।
विद्रोह का आरम्भ और दमन :-
साहूकार ने दरोगा महेश लाल की मदद से चोरी के आरोप में संथालो को जेल भेजवा दिया जहा जेल में विजय मांझी की मृत्यु हो गई। जिसके बाद संथालो ने एक सभा का निर्माण किया जिसमे सिधू को राजा, कान्हू को मंत्री बनाया गया और सिधू व कान्हू के नेतृत्व में विद्रोह आरम्भ हो गया । वर्ष 1856 में अंग्रेज अधिकारी अलेक्जेंडर ने संथाल विद्रोह का दमन कर किया। अंग्रेजो ने वर्ष 1855 में सिधू को और 1856 में कान्हू को फांसी दे दिया तथा चाँद व भैरव को गोली मार दी गयी।
11. मुण्डा विद्रोह -
- मुंडा विद्रोह का आरम्भ बिरसा मुंडा के नेतृत्व में शुरू किया गया था।
- इस विद्रोह को मुंडा उलगुलान के नाम से भी जाना जाता है।
- बिरसा मुंडा का जन्म 15 नवंबर 1875 को खूंटी के उलिहातू गांव में हुआ था।
- उनके पिता का नाम सुगना मुंडा और माता का नाम कदमी मुंडा था।
- बिरसा मुंडा के बचपन का नाम दाउद मुंडा था और बड़े भाई का नाम कोंता मुंडा था।
- बिरसा मुंडा को जयपाल नाग ने शिक्षा प्रदान किया जिसके बाद आनंद पांडेय ने उन्हें धार्मिक शिक्षा प्रदान की। बिरसा मुंडा ने दो नए धर्म सिंगबोंगा और बिरसाइत धर्म की स्थापना की थी।
- मुंडा विद्रोह वर्ष 1899 में आरम्भ हुआ और वर्ष 1900 को बिरसा मुंडा की मृत्यु के साथ ही यह समाप्त हो गया।
- इस विद्रोह का दमन अंग्रेज अधिकारी फॉरबेस ने किया।
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